Archive for August, 2008
Posted in Uncategorized on August 26, 2008| 1 Comment »
>लिखती हुई लड़कियां
Posted in pratibha on August 26, 2008| 4 Comments »
>यह नितांत मेरी ही कविता है। कविता है या नही
पता नही। दिल पर जो गुजरी है, नजरों से जो गुजरा है
उसी से बुनी गुनी…..
लिखती हुई लड़कियां
लिखती हुई लड़कियां
बहुत खूबसूरत होती हैं
लिखती हुई लड़कियां
अपने भीतर रचती हैं ढेरों सवाल
अपने अन्दर लिखती हैं
मुस्कुराहटों का कसैलापन
जबकि कागजों पर वे बड़ी चतुराई से
कसैलापन मिटा देती हैं
कविता मीठी हो जाती है
वे लिखती हैं आसमान
पर कागजों पर आसमान जाने कैसे
सिर्फ़ चाट भर होकर रह जाता है
वे लिखती हैं
सखा साथी, प्रेम
कागजों पर व्ओ हो जाता है
मालिक, परमेश्वर और समर्पण।
वे लिखती हैं दर्द, आंसू
वो बन जाती हैं मुस्कुराहटें
वे अपने भीतर रचती हैं संघर्ष
बनाना चाहती हैं nai दुनिया
वो बोना चाहती हैं प्रेम
महकाना चाहती हैं सारा जहाँ
लेकिन कागजों से उड़ जाता है संघर्ष
रह जाता है, शब्द भर बना प्रेम.
वे लिखना चाहती हैं आग
जाने कैसे कागजों तक
जाते-जाते आग हो जाती है पानी
लिखती हुई लड़कियां
नही लिख पाती पूरा सच
फ़िर भी सुंदर लगती है
लिखती हुई लड़कियां.
>मन
Posted in pratibha on August 26, 2008| Leave a Comment »
>
जो तुमसे चाहता है मन
तुम्हारे साथ हसना
तुम्हारे साथ रोना
तुम्हारे साथ रहना
तुम्हारे साथ सोना….
न जाने कितनी बातें हैं
जो तुमसे चाहता है मन
तुम्हीं से बात करना
तुम्ही से रूठ जाना
तुम्हारे साथ जग से जूझना भी
तुम्हे दुनिया से लेकर भाग jaana
सजल मासूम आँखे चूम लेना
तुम्हारी रात के सपने सजआना
तुम्ही हर बात में आदेश देना
तुम्हारी चाह को माथे लगना
न जाने कितनी बातें है
जो तुमसे चाहता है मन
विकत अनजान राहों में
तुम्हारा हाथ पाना
तुम्हारे मान का सम्मान करना
अडिग विश्वास से नाता निभाना
तुम्हारे रूप गुन की दाद देना
तुम्हारे शील को साथी बनाना
न जाने कितनी बातें हैं
जो तुमसे चाहता है मन
तुम्ही से ओज पाना
तुम्हारी धार को भी शान देना
तुम्हारे आसुओं के मोल बिकना
की अपनी आन पर भी जान देना
कभी चुपके, कभी खुल के
तुम्ही को चाह लेना
तुम्ही में डूब जाना
अटल गहराइयों की थाह लेना
न जाने कितनी बातें हैं
जो तुमसे चाहता है मन।
ये कविता भी दिनेशजी की ही है .
>मोक्ष
Posted in प्रतिभा on August 26, 2008| Leave a Comment »
>इसी काया में मोक्ष
बहुत दिनों से में
किसी ऐसे आदमी से मिलना चाहता हूँ
जिसे देखते ही लगे
इसी से तो मिलना था
पिचले कई जन्मो से।
एक ऐसा आदमी जिसे पाकर
यह देह रोज ही जन्मे रोज ही मरे
झरे हरसिंगार की तरह
जिसे पाकर मन
फूलकर कुप्पा हो जाए
बहुत दिनों से में
किसी ऐसी आदमी से मिलना
चाहता हूँ
जिसे देखते ही लगे
अगर पूरी दुनिया
अपनी आँखों नही देखिये
तो भी यह जन्म व्यर्थ नही गया
बहुत दिनों से मैं
किसी को अपना कलेजा
निकलकर दे देना चाहता हूँ
मुद्दतों से मेरे सीने में
भर गया है अपर मर्म
मैं चाहता हूँ कोई
मेरे paas भूखे शिशु की तरह आए
कोई मथ डाले मेरे भीतर का समुद्र
और निकल ले sare रतन
बहुत दिनों से मैं
किसी ऐसे आदमी से
मिलना चाहता हूँ
जिसे देखते ही
भक्क से बार जाए आँखों में लौ
और लगे की
दिया लेकर खोजने पर ही
मिलेगा धरती पर ऐसा मनुष्य
की paa गया मैं उसे
जिसे मेरे पुरखे गंगा नहाकर paate थे
बहुत दिनों से मैं
जानना चाहता हूँ
कैसा होता है मन की
सुन्दरता का मानसरोवर
चूना चाहता हूँ तन की
सुन्दरता का शिखर
मैं चाहता हूँ मिले कोई कोई ऐसा
जिससे मन हजार
बहारों से मिलना चाहे
बहुत दिनों से मैं
किसी ऐसे आदमी से मिलना
चाहता हूँ
जिसे देखते ही लगे
करोड़ों जन्मो के पाप मिट गए
कट गए सरे बंधन
की मोक्ष मिल गया इसी काया में …..
ye कविता दिनेश कुशवाह की है ।
>गोलबंद स्त्रियों की नज़्म
Posted in pratibha on August 22, 2008| Leave a Comment »
>yऐ मदन कश्यप की कविता है। मुझे
बहुत पसंद है।
कुछ हस्ती है आँचल से मुह ढंककर
तो कुछ मुह खोलकर ठहाके लगाती है
गोलबंद होकर स्त्रियाँ
जाने क्या क्या बतियाती हैं
बात कुए से निकलकर
दरिया तक पहुचती है
और मौजों पर सवारी गांठ
समंदर तक चली जाती है
समंदर इतना गहरा
की हिमालय एक कंकड़ की तरह डूब जाए
ऊँची ऊँची उसकी लहरे
बादलों के आँचल पर
जलधार गिरती
वेदना की व्हेल
दुष्टता की सरक
छुपकर दबोचने वाले
रक्तपायी आक्टोपस
जाने और भी क्या क्या
उस समुद्र में
गम हो या खुशी
चुपचाप नही पचा पाती है स्त्रियाँ
मिलकर बतियाती है मिलकर, गाती है
इसीलिए तो इतना दुःख उठा पाती है
स्त्रियों ने रची है दुनिया की सभी लोककथाएं।
उन्हीं के कंठ से फूटे है अरे लोकगीत
गुमनाम स्त्रियों ने ही दिए है
सितारों को उनके नाम
>कुछ तुकडे
Posted in pratibha on August 22, 2008| Leave a Comment »
>भीड़ कभी गंभीर नहीं होती, एकांत गंभीर होता है
लिखना एकांत की और चिंतन की उपज है यह
जितना कुछ किसी की अपनी जरूरत बने वाही ठीक है।
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हम सबका सबसे बड़ा गुनाह सचमुच यही है की हम अपने ही भीतर
पड़ी संभावनाओ को नही जानते।
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सपने की हैरानी और खुमारी बताई नही जाती।
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लेखक अपने पाठको का आसमान बड़ा कर सकता है।
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कभी-कभी घोर उदासियाँ भी आंखों में जो पानी नही ला
पति किसी दोस्त की मोहब्बत उस पानी का बाँध तोड़ देती है।
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अपने पात्रों के साथ एक जान हो जाने का तजुर्बा
भी अजीब तजुर्बा होता है।
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सिर्फ़ मुश्किल वक़्त ही नाजुक नही होता। अचानक कहीं से
इतनी पहचान मिले, इतना प्यार मिले ऐसा वक़्त भी उतना ही
नाज़ुक होता है।
गीत मेरे कर दे
मेरे इश्क का क़र्ज़ अदा
की तेरी हर एक स्तर से
आए ज़माने की सदा।
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टेढी सिलाई उधडा हुआ बखिया
यह जीना भी क्या जीना है।
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जीवन में एक बार प्यार जरूर करना चाहिए।
इस्ससे जिन्दगी पूरी हो जाती है।
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मन की धरती पर पड़े हुए ख्यालों के बीच कितने फल पाते
हैं और कितने सूख जाते हैं नहीं जानती। लइन फ़िर भी इन
अशारों का शुक्रिया अदा करती हूँ जिन्होंने बहुत हद तक मेरे
अहसास का साथ दया है।
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>allav
Posted in pratibha on August 19, 2008| Leave a Comment »
>1८ अगस्त गुलज़ार साहब का जन्मदिन
आज उनकी ये नज़्म मेरे ब्लॉग पर
रात भर सर्द हवा चलती रही
रात भर हमने अलाव तापा
मैंने माजी से कई खुश्क सी शाखिएँ
काटी तुमने भी गुजरे हुए लम्हों के पत्ते
तोडे मैंने जेबों से निकली सभी सुखी नज्म
तुमने भी हाथों से मुरझाये हुए ख़त खोले
अपनी इन आंखों से मैंने कई मांजे तोडे
और हाथों से कई बासी लकीरें फेंकी
तुमने पलकों पे नमी सूख गयी थी ,
सो गिरा दिन रात भर जो भी मिला
उगते बदन पर हमको काट के दाल दिया
जलते अलावों मैं उसे रात भर फूंकों से
हर लौ को जगाये रखा और दो जिस्मों के इंधन को
जलाये रखा भर बुझते हुए रिश्ते को तापा हमने
>dream
Posted in Uncategorized on August 3, 2008| Leave a Comment »
Posted in Uncategorized on August 3, 2008| Leave a Comment »
>jindagi ke naam
Posted in pratibha on August 3, 2008| 1 Comment »
>Hajaro khwahishen aisi ki har khwahish par dam nikle…
Galib ki ye line hamesha mere sath rahti hai. vaise aisi
aur bhi line hai, log hain, baten hain jo hamesha ke liye
man ki diary me darj ho jati hai. Sach poocha jaye to
yahi mera khajana haim meri poonji hai aur isi ki mujhe
bhookh hai. Filhaal Galib sahab ki is line ki baat. Apni
har khwahish ko maine jee bhar ke pyar kiya hai. Bagair
ye ummeed kiye ki vo poori hogi ya nahi. Mere liye uska
astitva mere bheetar kabhi bhi jara bhi kam nahi hua.
Bahar ki duniya ke apne niyam hain, apne tareeke hain
mujhe pata hai is duniya me meri khwahishon ki koi
kadra nahi hogi. Ho bhi kyo kisi ne mera ya meri bewakoofiyon
ka theka liya hai kya. Maine aisi koi chah bhi nahi rakhi.
Han, ek kaam kiya ki apni ek alag duniya bana li. mere men ki duniay.
Jahir hai mere Man ki is duniya me mera raj chalta hai. mare
niyam hai aur mai hoon. vo bhi hai jo mere man tak pahunch pate
hai. jaise santoor bajate pt Sharma ji, Mujhe mere man se
milvane wale mere gurujan, ve sdathi jinhone hamesha
sath diya aur ahsas karaya ki nahi jeet har alag baat hai
lekin har haar ka arth galat hona nahi hota. Vo kitabe
jo mere sath sans ki tarah chalti hai. Vo dukh jo mujhe
manjta hai, vo pareshaniya jo mujhe majboot banati hai,
Vo pyar jo mere ankhon ke sawan ko sachmuch ka
sawan bana deta hai aur vo Gurujan jo mujhe dukh ke
andhere se nikalkar haath me kalam thama kar kahte
hai likho Pratibha Likho…Mai nahi janti ki mai kaisa
likh pati hoon. mujhe kyo likhna chahiye lekin itna jaroor
janti hoon ki mai likhe bine, padhe bia jee nahi pati.
Na likh pane ki yatna se gujar chuki hoon. un saalon
me aisa laga hi nahi ki mai jinda hoon. to ye blog mere jinda
rahne ke liye.
Na na mat mango mujhse
ye koi jewar nahi
tumhare baajar me
koi keemat nahi iski
ye gam hai mera
meri tanhai hai