> कई बार लिखे हुए को पढऩा नहीं सुनना ज्यादा अच्छा लगता है कोई सुनाए अगर प्यार से. ठीक उसे तरह कभी-कभी सुने हुए को पढऩा भी बहुत अच्छा लगता है, धुनों को महसूस करते हुए हर लफ्ज पर उंगलियां रखते हुए आगे बढ़ते जाना…आज इश्क की नब्ज़ पर हथेलियां रख देने को जी चाहा…
तेरे इश्क में… तेरे इश्क में…
राख से रूखी
कोयले से काली…
रात कटे ना हिज्राँ वाली
तेरे इश्क में…हाय,
तेरे इश्क में…
तेरी जुस्तजू करते रहे
मरते रहे
तेरे इश्क में…
तेरे रू-ब-रू,
बैठे हुए मरते रहे
तेरे इश्क में
तेरे रू-ब-रू, तेरी जुस्तजू
हाय …तेरे इश्क में…
बादल धुने…मौसम बुने
सदियाँ गिनीं
लम्हे चुने
लम्हे चुने मौसम बुने
कुछ गर्म थे कुछ गुनगुने
तेरे इश्क में…
बादल धुनें मौसम बुने
तेरे इश्क में…तेरे इश्क में…
तेरे इश्क में..हाय… तेरे इश्क में
तेरे इश्क में तनहाईयाँ …
तनहाईयाँ तेरे इश्क में
हमने बहुत बहलाईयाँ
तन्हाइयां …तेरे इश्क में
रूसे कभी
मनवाईयां… तनहाईयां…
तेरे इश्क में
मुझे टोह कर
कोई दिन गया
मूझे छेड़कर कोई शब गयी
मैंने रख ली सारी आहटें
कब आई थी शब् कब गयी
तेरे इश्क में,
कब दिन गया शब् कब गई…
तेरे इश्क में…तेरे इश्क में…
हाय… तेरे इश्क में
राख से रूखी…कोयले से काली
रात कटे ना हिज्रां वाली
दिल जो किये…हम चल दिये
जहां ले चला
तेरे इश्क में
हम चल दिए
तेरे इश्क में
हाय…तेरे इश्क में
मैं आसमान
मैं ही ज़मीं,
गीली ज़मीं ,
सीली ज़मीं,
जब लब जले पी ली ज़मीं
गीली ज़मीं तेरे इश्क में…
शब्द- गुलज़ार
आवाज़ – (जो यहां है नहीं) रेखा भारद्वाज
अल्बम – इश्का-इश्का
Archive for the ‘Uncategorized’ Category
>तेरे इश्क में
Posted in Uncategorized on January 7, 2010| Leave a Comment »
>काशी कक्का की कहानियां
Posted in Uncategorized on August 14, 2009| Leave a Comment »
>
>बस एक ख्वाब
Posted in Uncategorized on May 9, 2009| Leave a Comment »
>पूरे शहर में तितलियां उड़ती फिर रही हैं. रंग बिरंगी तितलियां, छोटी बड़ी तितलियां. खूबसूरत तितलियां. आज शहर को अचानक क्या हो गया है? पूरा शहर तितलियों से भरा है. हर कोई तितलियों के पीछे भाग रहा है. भागता ही जा रहा है. कोई छोटी तितली के पीछे भाग रहा है, कोई बड़ी तितली के पीछे. न कोई गाड़ी, न बस, न ऑटो. सारे ऑफिस बंद, दुकानें भी बंद. घर में कोई नहीं, बड़े-छोटे, स्त्री-पुरुष सब के सब सड़कों पर दौड़ते हुए. पता चला ये जो तितलियां हैं. दरअसल, ये तितलियां नहीं हैं, ख्वाब हैं।
नये राजा ने यह मुनादी करवायी है कि हर कोई अपने जीवन का एक ख्वाब पूरा कर सकता है. सरकार हर किसी का एक ख्वाब जरूर पूरा करेगी. अब जो यह मुनादी हुई तो सबकी ख्वाबों की पोटलियां निकल कर बाहर आ गईं. सदियों से पलकों के पीछे दबे पड़े ख्वाब जरा सा मौका मिलते ही भाग निकले. सारे ख्वाब तितली हो गये. अब हर कोई अपने ख्वाबों के पीछे भाग रहा है. कौन सा पकड़े, कौन सा छोड़ा जाए. वो वाला, नहीं वो वाला. नहीं, सबसे अज़ीज तो वो था, इसके बगैर तो काम चल सकता है. कोई किसी से बात नहीं कर रहा है. सब ख्वाबों के पीछे भाग रहे हैं और जिन्होंने पकड़ लिया है अपने ख्वाबों को, वे इस पसोपेश में हैं कि कौन सा पूरा कराया जाए. भई, ऐसा मौका रोज तो नहीं मिलता है ना?
इसी आपाधापी में दिन बीत गया. बच्चों के हंसने की आवाजें शहर में गूंजने लगीं. पूरे दिन जब सारे बड़े अपने-अपने ख्वाबों के पीछे भाग रहे थे बच्चों ने मिलकर खूब मजे किए. न स्कूल का झंझट था, न घरवालों की रोक-टोक. जो जी चाहा वो किया, जितनी मर्जी आयी उतनी देर खेलने का लुत्फ उठाया. शाम को उनके खुलकर हंसने की आवाजें शहर में गूंजने लगीं. बड़ों ने डांटा, चुप रहो, डिस्टर्ब कर रहे हो तुम लोग?
किस बात में डिस्टर्ब कर रहे हैं हम ?
बच्चों ने पूछा।
आज नये राजा का फरमान है कि वो सबका एक ख्वाब पूरा करेंगे. हम लोग अपना-अपना सबसे प्यारा ख्वाब ढूंढ रहे हैं. बच्चे हंसे।
लेकिन ख्वाब तो पूरा हो गया. बड़े चौंके।
हां, दिन बीत चुका है,
और ख्वाब पूरा हो चुका है. आप लोग सारा दिन ख्वाब ढूंढते रहे और हमारा एक ही ख्वाब था एक दिन अपनी मर्जी से जीने का, वो पूरा हो गया. अब बंद करिये ढूंढना-वूंढना. समय बीत चुका है. तितलियां गायब हो गईं सब की सब. शहर में बस गाडिय़ां ही दौड़ रही थीं फिर से.
>रुकना मार्खेज की कलम का
Posted in Uncategorized on April 9, 2009| Leave a Comment »
गैब्रिएल गर्सिया मार्खेज को पढ़ा है? उन्हें नहीं पढ़ा तो क्या पढ़ा? व्हॉट अ पावरफुल राइटिंग….यह कनवर्सेशन किन्हीं दो लोगों के बीच का था. जिन लोगों के बीच की यह बातचीत है, उनमें से किसी का भी न नाम याद है, न चेहरा. लेकिन बचपन की यादों में यह कनवर्सेशन भी कहीं दर्ज हो गया. क्यों न होता आखिर मार्खेज नाम की दुनिया का रास्ता उन्हीं संवादों से खुला था. जब भी स्पेनिश लेखक मार्खेज को पढ़ती हूं वे संवाद जरूर याद आते हैं. आज फिर याद आ रहे हैं, वे संवाद भी और मार्खेज भी. यह खबर जब आंखों के सामने से गुजरी कि 82 वर्षीय मार्खेज ने कलम रख दी है यानी उन्होंने लिखने से संन्यास ले लिया है तो यकीन नहीं हुआ. फिल्मों से, क्रिकेट से, राजनीति से संन्यास लेते हुए तो लोगों को देखा था, सुना था लेकिन लेखन से सन्यास? वो भी मार्खेज का संन्यास. पता नहीं इस खबर को लेकर कितने लोगों ने रिएक्ट किया होगा, कितनों ने इस खबर से पहली बार मार्खेज का नाम सुना होगा और कितनों ने बेहद तकलीफ का अनुभव किया होगा. नोबेल पुरस्कार से सम्मानित हो चुके मार्खेज का आखिरी उपन्यास पांच साल पहले आया था. उपन्यास का नाम था मेमोरीज ऑफ माई मेलनकोली होर्स. उनके न लिखने की घोषणा के साथ ही यह उनका आखिरी उपन्यास हो गया है. युवा पत्रकार, क्रिएटिव राइटिंग का कोर्स कर रहे स्टूडेंट्स और लिखने की लालसा रखने वाले नए लोगों को लिखने की जद्दोजेहद में उलझे बगैर लिखने को लेकर परफेक्शन का बोध देखकर मार्खेज के ये शब्द याद आते हैं, ‘लिखना सुख की अनुभूति तो है ही लिखना लंबी, घनी यातना से गुजरना भी है. आज कितने लोग लिखने की यातना से गुजरते हैं या गुजर पाते हैं यह एक दूसरा ही सवाल है. एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था कि कभी-कभी पूरे दिन में एक पैरा भी लिख जाए तो बहुत बड़ी बात है. उनका लेखन को लेकर संन्यास लेना, उनके इस कहे को सही साबित करता है कि लिखना लिखने के लिए नहीं होना चाहिए. उनका लेखन बंद करना इस इरादे से भी है कि कहीं उनके लेखन में दोहराव न आने लगे. इसके पहले मुझे तो किसी लेखक का नाम याद नहीं आता जिसने ऐसा कुछ कहा हो कि उसने न लिखने का फैसला किया है. आमतौर पर ये फैसले समय ने ही किये हैं. कभी लंबी बीमारी के चलते, कभी किन्हीं और कारणों से लोगों का लेखन छूट जरूर गया लेकिन छोड़ा किसी ने नहीं. समझ में नहीं आ रहा है कि इस खबर को अच्छी खबर माना जाए या बुरी खबर. बुरी इस लिहाज से कि अब उनकी कोई भी नई रचना पढऩे को नहीं मिलेगी. उनके लेखन से पूरे विश्व के साहित्य ने ऊर्जा ली है, दिशा ली है. ऐसे में एक दिशाहीनता की स्थिति आने की संभावना है. लेकिन इस खबर का सुखद पहलू यह है कि जीवन भर अपने लेखन के प्रति ईमानदार रहने वाले मार्खेज ने जीते जी इस ईमानदारी को निभाया. उन्होंने कलम के मोह से मुक्ति ली. यूं भी मार्खेज के ही शब्दों में अगर उन्हें सुना जाए तो अब वे अपनी कलम से शब्दों को भले ही न रचें लेकिन उनका जीवन, उनकी अभिव्यक्तियों में हम उन्हें पढ़ते रहेंगे. मार्खेज को पढऩा आज के दौर की बड़ी जरूरत है, बस हम इस जरूरत को कितना समझ पाते हैं यही देखना है. जर्नलिस्ट के तौर पर अपना करियर शुरू करने वाले मार्खेज का पूरा जीवन प्रेरणा है। युवा पीढ़ी के दिमाग में चलने वाली उलझनों को जिस शाइस्तगी से उन्होंने तरतीब दी वह एक मिसाल है। उनकी किताबों की लिस्ट लंबी है, उनके कामों की लिस्ट भी लंबी है और हम दुआ करते हैं कि उनकी उम्र भी लंबी हो। ताकि हम उन्हें लिखते हुए भले ही न पढें़ उन्हें देखते हुए पढ़ते रहें। यूं भी लिखना सिर्फ शब्दों का कागजों पर बैठना भर तो नहीं होता।
>एक दिन
Posted in Uncategorized on March 2, 2009| 2 Comments »
>प्यार
पीड़ा ही छोड़ जाता है एक दिन
इस पीड़ा को अर्थ देने में
फ़िर बीतती है जिंदगी
धूप की, फूल की
हलकी उड़ती हवा की
भाषा समझ में आने लगती है
प्यार तरह-तरह से
उद्भाषित होता है
डूब जाता है शब्द
अर्थ में…..
>इस बार नहीं
Posted in Uncategorized on December 5, 2008| Leave a Comment »
इस बार जब मैं चेहरों पर दर्द लिखा देखूँगा
इस बार मैं न मरहम लगाऊँगा
इस बार घावों को देखना है गौर से थोड़ा लंबे वक्त तक
… प्रसून जोशी
>सच्चा प्यार
Posted in Uncategorized on October 23, 2008| 6 Comments »
>nओबल पुरस्कार विजेता विस्साव शिम्बोर्स्का की कवितायें
मुझे बहुत priy हैं। आज उनकी यह कविता फ़िर से पढ़ी
और इसे पद्धति ही गई…आज के ज़माने में जब प्यार एक पहेली
बन चुका है शिम्बोर्स्का की कविता में अलग सी मासूमियत छलकती है
सच्चा प्यार
क्या वह नॉरमल है…
क्या वह उपयोगी है…
क्या इसमे पर्याप्त गंभीरता है…
भला दुनिया के लिए वे दो व्यक्ति किस काम के हैं
जो अपनी ही दुनिया में खोये हुए हों…
बिना किसी ख़ास वजह के
एक ही जमीन पर आ खड़े हुए हैं ये दोनों
किसी अद्र्याश हाथ ने लाखों-करोड़ों की भीड़ से उठाकर
अगर इन्हें पास-पास रख दिया
तो यह महज एक अँधा इत्तिफाक था…
लेकिन इन्हे भरोसा है की इनके लिए यही नियत था
कोई पूछे की किस पुण्य के फलस्वरूप….
नही नही न कोई पुण्य न कोई फल है…
अगर प्यार एक रौशनी है
तो इन्हे ही क्यो मिली
दूसरों को क्यों नहीं चाहे कुदरत की ही सही
क्या यह नैन्सफी नहीं है
बिल्कुल है…
क्या ये सभ्यता के आदर्शों को तहस-नहस नही कर देंगे…
अजी कर ही रहे है…
देखो, किस तरह खुश है दोनों।
कम से कम छिपा ही लें अपनी खुशी को
हो सके तो थोडी दी उदासी ऊढ़ ले
अपने दोस्तों की खातिर ही सही। जरा उनकी बातें तो सुनो
हमारे लिए अपमान और उपहास के सिवा क्या है
और उनकी भाषा॥
कितनी संधिग्ध स्पष्टता है उसमे
और उनके उत्सव, उनकी रस्मे
सुबह से शाम तक फैली हुई उनकी दिनचर्या
सब कुछ एक साजिश है पूरी मानवता के ख़िलाफ़…
हम सोच भी नही सकते की क्या से क्या हो जाए
अगर साडी दुनिया इन्ही की राह पर चल पड़े
तब धर्म और कविता का क्या होगा
क्या याद रहेगा, क्या छूट जाएगा
भला कौन अपनी मर्यादाओं में रहनाचाहेगा
सच्चा प्यार
मैं poochati हूँ क्या यह सचमुच इतना जरूरी है…
व्यावहारिकता और समझदारी तो इसी में है
की ऐसे सवालों पर चुप्पी लगा ली जाए
जैसे ऊंचे तबकों के पाप कर्मों पर खामोश रह जाते हैं हम
प्यार के बिना भी स्वस्थ बच्चे पैदा ही सकते हैं
और फ़िर यह है भी इतना दुर्लभ
की इसके भरोसे रहे
तो ये दुनिया लाखों बरसों में भी आबाद न हो सके
जिन्हें कभी सच्चा प्यार नही मिला
उन्हें कहने दो की
दुनिया में ऐसी कोई छेज़ होती ही नहीं
इस विश्वास के सहारे
कितना आसान हो जाएगा
उनका जीना और मरना….
Posted in Uncategorized on August 26, 2008| 1 Comment »
>dream
Posted in Uncategorized on August 3, 2008| Leave a Comment »
Posted in Uncategorized on August 3, 2008| Leave a Comment »
>jindagi ke naam