>वैसे तो इन दिनों ऐसे लोग ही कम मिलते हैं जो यह पूछें की अच्छा कैसे लिखा जाए क्योंकि इन दिनों हर किसी को यही लगता है की वो सर्वश्रेष्ठ लिखता है। फ़िर भी कभी किसी चेहरे पर कप्पुस के सवाल नज़र आते हैं तो अच्छा लगता है। जब सवाल कप्पुस के से हों तो जवाब भी रिल्के का ही होना चहिये।
‘एक ही काम है जो तुम्हें करना चाहिए – अपने में लौट जाओ। उस केन्द्र को ढूंढो जो तुम्हें लिखने का आदेश देता है। जानने की कोशिश करो कि क्या इस बाध्यता ने तुम्हारे भीतर अपनी जड़ें फैला ली हैं ? अपने से पूछो कि यदि तुम्हें लिखने की मनाही हो जाए तो क्या तुम जीवित रहना चाहोगे ?…अपने को टटोलो…इस गंभीरतम ऊहापोह के अंत में साफ-सुथरी समर्थ ‘हाँ” सुनने को मिले, तभी तुम्हें अपने जीवन का निर्माण इस अनिवार्यता के मुताबिक करना चाहिए।’
Archive for the ‘pratibha’ Category
>रिल्के से एक सवाल
Posted in pratibha on March 26, 2009| Leave a Comment »
>बर्तोल्त ब्रेख्त की कवितायें
Posted in pratibha on March 24, 2009| Leave a Comment »
Posted in pratibha on March 23, 2009| Leave a Comment »
>आज फिर जीने की तमन्ना है…
Posted in pratibha on March 22, 2009| Leave a Comment »
>’कांटों से खींच के ये आंचल….तोड़ के बंधन बांधी पायल….कोई न रोको दिल की उड़ान को…दिल वो चला…. ये गाना मुझे कभी भी अच्छा नहीं लगा. बहुत से गाने अच्छे नहीं लगते हैं हमें, लेकिन यह गाना बहुत अच्छा होते हुए भी अच्छा नहीं लगा. कारण…शैलेंद्र जैसे गीतकार के लिखे गाने में मुझे बंधनों को तोड़कर पायल बांधने वाली बात $जरा कम जंचती है. पायल भी बंधन ही तो है. खैर, फिल्म ‘गाइड जिसका यह गाना है में पायल बंधन नहीं मुक्ति का मार्ग है, यह बात काफी बाद में समझ में आई और इसके बाद गाने से थोड़ा अपनापा हो ही गया. इतना तो तय है लेकिन कि यह गाना सौंदर्यबोध का गान नहीं मुक्ति का गान है. और यही इसका सौंदर्य है.पिछले दिनों इस मामले में मेरी राय जब गीता श्री के ब्लॉग पर उनकी राय से मिलती न$जर आई तो रुकना लाजिमी था. आज के दौर में सौंदर्यबोध, सौंदर्य प्रतीकों और सौंदर्य को रीडिफाइन करने का वक्त है. कब तक नायिकाओं को चूड़ी, बिंदी, झुमके, पायल जैसे सौंदर्य के उपमानों में उलझना पड़ेगा. आज के दौर में दिन-रात काम में उलझी स्त्रियां, दौड़ती-भागती स्त्रियां यह सुनने को बेकरार नहीं हैं कि आपकी साड़ी बहुत सुंदर है, आप बहुत खूबसूरत लग रही हैं. वे यह सब सुनकर ठिठक सकती हैं, मुस्कुरा सकती हैं कभी-कभी झल्ला भी सकती हैं लेकिन इससे उनके काम पर कोई असर नहीं पड़ता. अगर कोई उनसे यह कहता है कि आपका काम शानदार है तो उनके चेहरे पर गहरे संतोष की लकीर दिखती है. उनके काम को ताकत मिलती है. गीता श्री की चिंता एकदम जायज है कि जिस वक्त में लड़कियां जींस-टॉप पहनकर दौड़ती हुई स्पीड में काम कर रही हों ऐसे में चूड़ी की खनखनाहट और पायल की रुनझुन जैसे प्रतीक बेमानी ही लगते हैं. आसमान बड़ा हो रहा है. बंधन पिघल रहे हैं. अब तो ‘आती हुई लहरों पर जाती हुई लड़की… में सौंदर्य देखना होगा. उसका सौंदर्य उसके सपनों का है, उसकी ताकत उसकी महत्वकांक्षाओं की उड़ान है. गीता श्री का यह ब्लॉग कई मायनों में महत्वपूर्ण है. इसमें कॉन्ट्रीब्यूट करने वालों के पास भी नये जमाने की नई सोच है. अगर महिलाओं को, उनके काम को उनके भीतर के संसार को समझना हो, उनके अंदर की आग को जानना हो तो गीता के नुक्कड़ पर रुककर एक कप चाय पीना अच्छा अनुभव हो सकता है. तो आइये क्लिक करते हैं http://hamaranukkad.blogspot.com– प्रतिभा कटियार
आई नेक्स्ट के एडिट पेज पर प्रकाशित
>काश !
Posted in pratibha on March 21, 2009| Leave a Comment »
Posted in pratibha on March 20, 2009| Leave a Comment »
>ताकि उम्र भर जिया जा सके
Posted in pratibha on March 20, 2009| Leave a Comment »
>अंजुरी भर मरीना
Posted in pratibha on March 14, 2009| Leave a Comment »
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एक बार डॉक्टर नामवर सिंह ने बेहद भावुक होते हुए कहा था जिसने पिछले जन्मों में खूब सारे पुण्य किए होते हैं वही कविता लिख सकता है। मरीना को पढ़ते हुए हर बार यही लगता है की उसका जन्म सिर्फ़ कवितायें लिखने के लिए ही हुआ था। उनके हिस्से में जितनी यातनाएं आयीं दरअसल वे यात्रायें थीं उनकी कविताओं तक पहुँचने की। एक दिन नंदिनी के ब्लॉग पर पढ़ा था की उसे लगता है की पिछले जनम में वो ही मरीना थी। ऐसा ही कुछ मुझे भी लगता है हमेशा से, बस मैं कह नहीं पायी। उसके हर शब्द को धड़कते हुए महसूस किया है मैंने अपने भीतर। लेकिन हमारे पुण्य जरा कम थे सो हम मरीना नहीं हो पाये, प्रतिभा होकर रह गए। भटक गए इस दुनिया के रेले में/ मेले में। लेकिन कहीं कुछ था जो हमरे गुनाहों से बड़ा था। मरीना न हो पाने के गुनाहों से बड़ा तभी तो मरीना अपनी रचनाओं समेत हमारे भीतर प्रवेश कर गयीं। अनजाने देश की, अनजानी सी वो औरत हमरे भीतर धड़कने लगी, साँस लेने लगी। उनका जीवन अपना जीवन लगने लगा। एक-एक शब्द जैसे मैं ही तो हूँ। कभी-कभी किसी से मिलना, बात करना ख़ुद से मिलना होता है। अपनी ही आवाज में ख़ुद को पुकारना, अपने आपको सुनना। मरीना से मिलना हमेशा ऐसा ही होता है। हाँ, एक जगह हारती हूँ। कभी-कभी जब जरा सी तकलीफ से आँख भर आती है, जब दुनिया जीने नहीं देती अपनी तरह से। फ़िर लौटती हूँ मरीना के पास। सीखती हूँ दुखों को सहेजना, उन्हें अपनी शक्ति बनाना। उनसे वाबस्ता होते हुए अपनी तलाश करना। जिंदगी ऐसे ही तो जी जाती है। दुःख दरअसल सबसे बड़ी पूँजी है। ये वो समन्दर है जो अपने भीतर ढेर सारे हीरे, मोटी , शंख, सीप समेटकर लाता है। इस समन्दर में गहरे उतरने का हुनर, अपने दुःख की हिफाजत करने का हुनर, आंसू नही, शब्दों में ढलने का हुनर मरीना से बेहतर कौन जानता है भला। दर्द का मीठा सा अहसास मरीना के शब्द संसार में बिखरा पड़ा है। बुखार में तपती नन्ही आल्या (उनकी बिटिया ) के सिरहाने बैठकर निराशा, गरीबी, असुरक्षा से घिरी मरीना ही कवितायें लिख सकती थी… ऐसा लगता है मरीना के दर्द को बूँद-बूँद पिया है मैंने…जिया है मैंने…
आज एक मित्र ने फ़ोन पर मरीना का जिक्र करके उन्हें मेरे भीतर फ़िर से जगा दिया। भावुक, शोख, चंचल, जिद्दी, समझदार, नादाँ प्यारी सी मरीना। मरीना एक अहसास है जो न जाने कितने ही दिलों में धड़क रहा है…
>चारों ओर है तालिबान
Posted in pratibha on March 3, 2009| 3 Comments »
> उड़ने की, आसमान की ऊंचाइयों, आसमान के विस्तार को पार करने की स्ट्रांग फीलिंग किसमें होती है? उस पक्षी में जो पिंजड़े में होता है। रात-दिन, सोते-जागते उसे बस आसमान दिखता है। भूख, प्यास तक उसके लिए इंपॉर्टेट नहीं रहती. ऐसी ही कामना, उड़ने की ऐसी ही विलपावर पिछले दिनों दिखी पाकिस्तान (स्वात घाटी) की लड़कियों में. वे देश की तकदीर बदल देना चाहती हैं. पॉलिटिक्स, मेडिकल, इंजीनियरिंग, सेना हर जगह की कमान अपने हाथ में लेना चाहती हैं. आंखों में चमक है और दिल में ह़जारों ख्वाहिशें. जबकि सच्चाई यह है कि पाकिस्तान की स्वात घाटी में तालिबान का कब्जा हो चुका है. सिर्फ पाकिस्तान में ही नहीं, पूरी दुनिया में खलबली है, अब क्या होगा? हवा में हथियार लहराते हुए अपनी विजय का पर्व मनाते उन खूंखार लोगों को देखकर न जाने क्यों लगा कि इनके इस जश्न पर उस मासूम लड़की की एक मुस्कान भारी है. दुनिया का कोई भी खौ़फ अगर सपनों को आखों में आने से रोक नहीं पाता है तो य़कीन मानिए उसकी उम्र ज्यादा नहीं है. बहरहाल, आज सवाल यह भी है कि क्या तालिबान का कब्जा सिर्फ स्वात में हुआ है, वह भी अभी? क्या होता है तालिबान? कैसे होते हैं तालिबान के नाम पर दहशत पैदा करने वाले लोग? जितना मेरी समझ में आता है उसके हिसाब से तो मुझे यह तालिबान हर जगह ऩजर आता है. हिंदुस्तान में, अमेरिका में, बांग्लादेश में, पाकिस्तान में हर जगह. हमारे घर में, घर से बाहर निकलते ही, सड़कों पर, चौराहों पर, दफ्तरों में. कहां नहीं है तालिबान? हर वक्त, हर मोड़ पर किसी न किसी रूप में शिकंजा कसने की कवायद लगातार चल रही है. मंगलौर में जो हुआ उसे भला और क्या नाम दिया जा सकता है? वैलेंटाइंस डे पर पार्को में, सड़कों पर जो होता है, वो क्या है? सौम्या विश्वनाथन के साथ जो हुआ, वो क्या था? वह तो काम के बाद घर लौट रही थी. मुझे याद है उसकी हत्या के बाद किस तरह की बातें हुई थीं. उन बातों में मुख्य बात यह थी कि एक लड़की होने के नाते उसे देर रात निकलना ही नहीं चाहिए था. एक न्यूजपेपर ने तो सौम्या के कैरेक्टर का पोस्टमार्टम करने से भी गुरेज नहीं किया था. यानी उसके साथ जो हुआ, वह ठीक ही हुआ. गोया कि कोई लड़की सिर्फ इसलिए मार दी जा सकती है क्योंकि उसका कैरेक्टर गड़बड़ है. किसी लड़की के बारे में कुछ भी अनाप-शनाप बकवास करना, क्या पत्थर मारकर घायल करने या मार डालने की सजा से कम बड़ी सजा है? हर मोड़ पर कोई न कोई कैरेक्टर सर्टिफिकेट देने को तैयार खड़ा है. क्या तालिबानी सोच का ही दूसरा संस्करण नहीं हैं ये लोग? हद तो यह है कि जहां इन लोगों को घर से बाहर निकलने वाली सारी औरतों को कैरेक्टरलेस कहने में कोई संकोच नहीं है, वहीं दूसरी ओर घर में रहने वाली औरतों के बारे में भी कोई खास अच्छी राय नहीं है इनकी. पढ़े-लिखे समाज में ये चेहरे इस कदर डिजॉल्व हो चुके हैं कि इन्हें पहचानना भी मुश्किल है. एक सूडोइज़्म हर जगह है. वो कहते हैं, हम तुम्हारे साथ हैं, तुम चलो॥पर ऐसे नहीं, वैसे॥इतनी तेज नहीं ़जरा धीरे, इधर नहीं उधर..यह कैसी डेमोक्रेसी है, जहां आजादी के बाद बंदिशें और बढ़ रही हैं? मुझे लगता है कि वह दुश्मन फिर भी ठीक है, जिसका चेहरा आप पहचान सकते हैं. ऐसे दुश्मन तो और भी खतरनाक हैं, जो दोस्त बनकर गला काट रहे हैं. हर वक्त एक घुटन, उदासी, उपेक्षा और नकारेपन का अहसास करा रहे हैं. पाकिस्तान में तालिबान के घुसने के बाद हम सब कम से कम वहां के लोगों की स्थिति को समझने की कोशिश तो कर रहे हैं, कुछ हद तक ही सही लेकिन अपने आसपास के तालिबानी चेहरों को पहचान पा रहे हैं क्या? तालिबान और कुछ नहीं एक क्रूर सोच है जो हर सूरत में अपना प्रभुत्व बनाये रखना चाहती है. अपने नियम, ़कायदे, कानूनों में लोगों को जकड़ देती है. जिसका शिकार सबसे ज्यादा औरतें होती हैं. वक्त आ गया है खुद को समझने का, अपने भीतर जन्म लेती तालिबानी सोच को झटककर फेंक देने का. साथ ही आसपास उग आये तालिबानी चेहरों के इरादों को नाकाम करते हुए इस आसमान की ऊंचाइयों से भी पार….
>गम का heera
Posted in pratibha on February 28, 2009| Leave a Comment »
>गम का हीरा
दिल में रखो
किसे दिखाते फिरते हो
ये चोरों की
दुनिया है….