>चिराग मांगते रहने का कुछ सबब भी नहीं
कैसे बताये कि अब तो शब भी नहीं
जो मेरे शेर में मुझसे जियादा बोलता है
मैं उसकी बज्म में इक हर्फ-ए-जेर-ए-लब भी नहीं
और अब तो िजन्दगी करने के सौ तरीके हैं
हम उसके हिज्र में तनहा रहे थे जब भी नहीं
कमाल शख्स था जिसने मुझे तबाह किया
खि़लाफ उसके ये दिल हो सका है अब भी नहीं
ये दु:ख नहीं कि अंधेरों से सुलह की हमने
मलाल ये है कि अब सुबह की तलब भी नहीं
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चेहरा मेरा था निगाहें उसकी
खामोशी में भी वो बातें उसकी
मेरे चेहरे पे गजल लिखती गयीं
शेर कहती हुई आखें उसकी
शोख़ लम्हों का पता देने लगीं
तेज होती हुईं सांसें उसकी
ऐसे मौसम भी गुजारे हमने
सुबहें अपनी थीं, शामें उसकी
ध्यान में उसके ये आलम था कभी
आंख महताब की, यादें उसकी
रंग जोइन्दा वो, आये तो सही
फूल तो फूल हैं, शाखें उसकी
फैसला मौज-ए-हवा ने लिक्खा
आंधियां मेरी, बहारें उसकी
खुद पे भी खुलती न हो जिसकी नजर
जानता कौन जबाने उसकी
नींद इस सोच से टूटी अक्सर
किस तरह कटती हैं रातें उसकी
दूर रहकर भी सदा रहती हैं
मुझको थामे हुए बांहें उसकी
जोइन्दा- जिज्ञासु